
भरत झुनझुनवाला
आर्थिक विश्लेषक
सरकार ने हाल में कुछ छोटे सरकारी बैंकों का बड़े बैंकों में विलय किया है। साथ-साथ सरकार ने पिछले तीन वर्षों में सरकारी बैंकों की पूंजी में 250 हजार करोड़ रुपए का निवेश किया है। इस निवेश के बावजूद समस्त सरकारी बैंकों के शेयरों की बाजार में कीमत, जिसे ‘मार्केट कैपिटलाइजेशन’ कहते हैं, कुल 230 हजार करोड़ रुपए है। इसका अर्थ हुआ कि सरकार ने जो 250 हजार करोड़ रुपए इनमें निवेश किए उसमें से केवल 230 हजार करोड़ रुपए बचे हैं...
भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल छंटते नहीं दिख रहे हैं। तमाम संस्थाओं का अनुमान है कि वर्तमान आर्थिक विकास दर चार से पांच प्रतिशत के बीच रहेगी जो कि पूर्व के सात प्रतिशत से बहुत नीचे है। इस परिस्थिति में कुछमौलिक कदम उठाने पडे़ंगे अन्यथा परिस्थिति बिगड़ती जाएगी। पहला कदम सरकारी बैंकों की स्थिति को लेकर है। सरकार ने हाल में कुछ छोटे सरकारी बैंकों का बड़े बैंकों में विलय किया है। साथ-साथ सरकार ने पिछले तीन वर्षों में सरकारी बैंकों की पूंजी में 250 हजार करोड़ रुपए का निवेश किया है। इस निवेश के बावजूद समस्त सरकारी बैंकों के शेयरों की बाजार में कीमत, जिसे ‘मार्केट कैपिटलाइजेशन’ कहते हैं, कुल 230 हजार करोड़ रुपए है। इसका अर्थ हुआ कि सरकार ने जो 250 हजार करोड़ रुपए इनमें निवेश किए उसमें से केवल 230 हजार करोड़ रुपए बचे हैं। इन बैंकों में पिछले चालीस वर्षों में जो देश ने निवेश किया है वह भी पूरी तरह स्वाहा हो गया है। यानी सरकारी बैंक अपनी पूंजी को उड़ाते जा रहे हैं और सरकार इन्हें जीवित रखने के लिए इनमें पूंजी निवेश करती जा रही है। इस समस्या का हल सरकारी बैंकों के विलय से नहीं निकल सकता है क्योंकि जिन सुदृढ़ बैंकों में कमजोर बैंकों का विलय किया गया है उनकी स्वयं की हालत खस्ता है। वे अपनी पूंजी को भी नहीं बचा पा रहे हैं। जब वे अपनी पूंजी की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं तो वे कमजोर और छोटे बैंकों की पूंजी की कैसे रक्षा करेंगे, यह समझ के बाहर है। अतः सरकार को चाहिए कि इन बीमार बैंकों को जीवित रखने के स्थान पर इनका तत्काल निजीकरण कर दे। इनमें और पूंजी डालने के स्थान पर इनकी बिक्री करके 230 हजार करोड़ की रकम वसूल करे जिसका उपयोग देश के अन्य जरूरी कार्यों जैसे रिसर्च इत्यादि में निवेश किया जा सके। सरकार ने बीते पांच वर्षों में वित्तीय घाटे में नियंत्रण करने में सफलता पाई है। 2014 में सरकार का वित्तीय घाटा हमारी आय का 4.4 प्रतिशत था जो 2019 में घटकर 3.4 प्रतिशत हो गया है।
वित्तीय घाटे पर नियंत्रण के लिए सरकार को बधाई क्योंकि यह दर्शाता है कि सरकार फिजूलखर्ची करने के लिए भारी मात्रा में बाजार से ऋण नहीं उठा रही है, लेकिन वित्तीय घाटे में जो कटौती हासिल की गई है उसमें बराबर हिस्सा पूंजी खर्चों में कटौती से हासिल किया गया है और केवल एक हिस्सा चालू खर्चों में कटौती से हासिल करके किया गया है। पूंजी खर्च में कटौती से घरेलु निवेश कम हो रहा है। स्पष्ट है कि वित्तीय घाटे में नियंत्रण करने से न तो विदेशी निवेश आ रहा है और न घरेलू निवेश बढ़ रहा है। इस परिस्थिति में घरेलू मांग को बढ़ाने के उपाय करने होंगे। उपाय है कि मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से आम जनता के हाथ में रकम पहुंचाने वाले सरकारी कार्यक्रमों में खर्च बढ़ाया जाए जैसे सड़क बनाने के लिए जेसीबी के स्थान पर श्रम का उपयोग किया जाए अथवा जंगल लगाने के लिए श्रमिकों को रोजगार दिया जाए। इस प्रकार के कार्य करने से आम आदमी के हाथ में क्रय शक्ति आएगी। वह बाजार से माल खरीदेगा और घरेलू बाजार की सुस्ती टूटेगी। इस खर्च को बढ़ाने के लिए सरकार को ऋण लेने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। इस कार्य के लिए वित्तीय घाटे को बढ़ने देना चाहिए। निवेश के लिए वित्तीय घाटे को बढ़ने देने में कोई खराबी नहीं है उसी प्रकार जैसे अच्छा उद्यमी नई फैक्टरी लगाने के लिए बैंकों से ऋण लेकर निवेश करता है। छोटे उद्योगों को सहारा देने के लिए सरकार ने बीते दिनों में कुछ सार्थक कदम उठाए हैं। जीएसटी में छोटे उद्योगों को रिटर्न फाइल करने में छूट दी गई है और सरकारी बैंकों पर दबाव डाला गया है कि वे छोटे उद्योगों को भारी मात्रा में ऋण दें। फिर भी छोटे उद्योग पनप नहीं रहे हैं। मूल कारण यह है कि चीन से भारी मात्रा में माल का आयात हो रहा है और उसके सामने हमारे उद्योग खडे़ नहीं हो पा रहे हैं। चीन के माल के सस्ते आयात के पीछे चीन की दो संस्थागत विशेषताएं हैं। एक यह कि श्रमिकों की उत्पादकता वहां अधिक है। चीन के श्रमिकों को भारत की तुलना में अढाई गुना वेतन मिलता है लेकिन वे अढाई गुना से ज्यादा उत्पादन करते हैं। मान लीजिए उन्हें ढाई गुना वेतन मिलता है तो वे पांच गुना उत्पादन करते हैं। इस प्रकार चीन में माल के उत्पादन में श्रम की लागत कम हो जाती है।
चीन में श्रमिक की उत्पादकता अधिक होने का मूल कारण यह है कि वहां पर ट्रेड यूनियन और श्रम कानून ढीले हैं अथवा उद्यमी के पक्ष में निर्णय दिया जाता है। इससे उद्यमी द्वारा श्रमकों से जम कर काम लिया जाता है और माल सस्ता बनता है। चीन में माल सस्ता होने का दूसरा कारण भ्रष्टाचार का स्वरूप है। चीन में भी नौकरशाही उतनी ही भ्रष्ट है जितनी कि अपने देश में। चीन से व्यापार करने वाले एक उद्यमी ने बताया कि किसी चीनी उद्यमी को नोटिस दिया गया कि उसकी जमीन का अधिग्रहण किया जाएगा क्योंकि वहां से सड़क बननी है। इसके बाद चीनी सरकार के अधिकारी उद्यमी के दफ्तर पहुंचे और उससे बातचीत हुई। उद्यमी ने कहा कि उसे अपनी फैक्टरी को अन्य स्थान में ले जाने में वर्तमान की तुलना में तीस प्रतिशत खर्च पड़ेगा। अधिकारियों ने उसी स्थान पर तीस प्रतिशत अधिक रकम का चेक दे दिया और छह महीने में उसने अपनी फैक्टरी को दूसरी जगह लगा दिया। उस स्थान पर सड़क का निर्माण हो गया। इस प्रक्रिया में चीन के अधिकारियों ने घूस भी खाई, लेकिन अंतर इस बात का है कि मामला आंतरिक वार्तालाप से तय हो गया। सड़क भी शीघ्र बन गई और उद्यमी भी परेशान नहीं हुआ। इस प्रकार जो विवादित मामले हैं उनको सामने-सामने बैठकर हल कर लिया जाता है जिससे चीन की अर्थव्यवस्था में उत्पादन लागत कम पड़ती है, लेकिन श्रम कानून और भ्रष्टाचार को नियंत्रण करना भारत के लिए एक कठिन कार्य है। इस परिस्थिति में सरकार को चाहिए कि चीन से आयातित होने वाले माल पर आयात कर बढ़ाए और यदि जरूरत हो तो इस कार्य को करने में विश्व व्यापार संगठन के बाहर भी आ जाए क्योंकि अपने देश की जनता के रोजगार की रक्षा करना प्राथमिक है। सरकार को गंभीरता से मौलिक कदम उठाने चाहिए अन्यथा अर्थव्यवस्था की गति बिगड़ते ही जाने की संभावना बनती ही जा रही है।