
कांगड़ा के छोर पर खड़े होकर सांसद अनुराग ठाकुर ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के सामने अपने राजनीतिक आंगन पर बुहार लगाई है। नई तोहमतें गढ़ी हैं और अपने वजूद के साथ देहरा यानी हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की जनता को खड़ा किया है। जाहिर तौर पर अब सवाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्तित्व को कहीं पीछे छोड़कर यह पूछ रहा है,‘मेरे अंगने में, तेरा क्या काम है।’ यानी सांसद ने सारी विफलताओं के लिए राज्य की अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया और खुद वकील बन कर दलील और जलील करते दिखे। हिमाचली परिप्रेक्ष्य और भाजपा के अनुशासन में सांसद बनाम मुख्यमंत्री के बीच सार्वजनिक टकराव का यह अजीब मंच व मौका था, जिसके संदर्भ सारी राजनीति को संदेश दे रहे हैं। मसला अगर एक विश्वविद्यालय का है, तो इसके साथ-साथ सच-झूठ और दर्जनों फरेब जुड़े हैं। यह केंद्र से मिला एकमात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं है जिसे सांसद अनुराग ठाकुर ही लाए, बल्कि यह यूपीए सरकार की देन है, लेकिन उस समय की धूमल सरकार ने इसे राजनीतिक बिसात पर रख दिया। यानी धर्मशाला के नाम पर आए विश्वविद्यालय की चीर फाड़ हुई और इसकी आह से राजनीतिक विरासत निकली। देहरा की जनसभा में केंद्रीय विश्वविद्यालय का अस्तित्व मिल जाए, तो शाहपुर कालेज परिसर में चल रही कक्षाओं का क्या होगा और अगर यह वर्तमान सरकार की नालायकी बना दिया जाए तो भी अन्याय होगा। विश्वविद्यालय के साथ कई पक्ष रहे हैं और इनमें वीरभद्र सरकार, धूमल सरकार, पूर्व सांसद चंद्र कुमार, चंद्रेश कुमारी, पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा तथा रविंद्र सिंह रवि का रुख भी रहा। यह दीगर है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना में बुद्धिजीवी वर्ग अपंग और शिक्षाविद अप्रासंगिक हो गए।
हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में इसकी पैमाइश तो खूब हुई, लेकिन कांगड़ा की परियोजना में कांगड़ा के सांसद रहे शांता कुमार असरदार नहीं रहे। यहां कांगड़ा के वर्तमान सांसद व तत्कालीन विधायक किशन कपूर की भूमिका का नकारात्मक पक्ष भी देखा गया, तो विजय सिंह मनकोटिया का शाहपुर के लिए हुंकारा भी सुना गया। कुल मिला कर एक प्रतिष्ठित संस्थान की मौत के लिए सारा राजनीतिक कुनबा दोषी है। ऐसे में राजनीतिक श्रेय लेना तो इसके जख्मों को कुरेदने जैसा ही होगा। आश्चर्य यह कि देहरा की जनसभा में पक्ष और विपक्ष की भूमिका में सत्ता का पक्ष ही रहा, तो कांग्रेस ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर गौण क्यों है। देहरा में भाजपा की डबल इंजन सरकार के कितने डिब्बे पटरी से उतरे होंगे, इसका अंदाजा वहां बज रही तालियां जरूर गिन रही होंगी। दरअसल एक तकलीफ का इजहार सांसद अनुराग ठाकुर कर गए, लेकिन इसकी खटास का चरमोत्कर्ष अभी बाकी है। अभी ट्रेलर देखा गया, फिल्म अभी बाकी है। यह दर्द एक संस्थान की पैरवी का नहीं, बल्कि अपनी-अपनी मिट्टी पर बरकरार रहने की कसौटी है। जो सांसद ने कहा, उसे केवल मुख्यमंत्री ने नहीं सुना, बल्कि इस आशय के मजमून में राजनीति का नया पाठ्यक्रम समाहित है। पाठकों को याद होगा कि हमने कई बार लिखा है कि प्रदेश के दो-दो संसदीय क्षेत्रों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा सरीखा सामना हो रहा है। यहां केंद्र बनाम राज्य के बीच शक्तियां बटोरी जा रही हैं, तो सत्ता के राज्य में जयराम के उद्घोष सुने जा रहे हैं। कहना न होगा कि सांसद के आक्रोश का जहर पीकर जयराम ठाकुर तटस्थ रहे या अब भूमिका में बदलाव आएगा। हिमाचल प्रदेश की राजनीतिक विडंबना भी यही है कि यहां बड़प्पन के बजाय बड़ा नेता होने की फितरत में सत्ता के संबोधन रहे हैं।
आश्चर्य यह कि कभी वीरभद्र सिंह पर क्षेत्रवाद के आरोप लगा कर भाजपा सत्ता में आई थी, लेकिन अब अपनी ही सत्ता के भीतर क्षेत्रवाद की दीवारों से घिर कर यह पार्टी पिछले कई वर्षों से अभिशप्त है। देहरा का टकराव तो एक बहाना है, वास्तव में इसके शुरुआती दंश तो सत्ता के हस्तांतरण में ही देखे गए। इससे पहले इसी तरह मंडी की एक सभा में वर्तमान सरकार के मंत्री तथा वहां के सांसद ने इशारों ही इशारों में हमीरपुर की तरफ कीचड़ उछाला था, तो भीतरी घाव देहरा आते-आते रिसने लगे हैं। बहरहाल यह स्थिति हिमाचल में भाजपा के लिए अच्छी नहीं है। आम जनता तो जनमंच को ही न्यायालय मानती है, तो देहरा की जनसभा में भाजपा का न्याय और भाजपा का ही अपराध गूंज रहा है। कौन हकीकत से परे और कौन अपनी खिचड़ी पका रहा है, जनता को समझते देर नहीं लगेगी। क्या हिमाचल का अति साक्षर समाज यह भी नहीं जान सकता कि उसके साथ सियासत का कौन सा पक्ष ईमानदार है। पहले जनता नेता बनाती थी, लेकिन अब नेता ही जनता को समेटने लगे हैं। कम से कम देहरा की जनसभा में यही प्रदर्शन रहा जहां सांसद की भाषा, बोली और विषय में जनता को चुना, बुना और समेटा गया। दूसरी ओर राज्य के मुख्यमंत्री ने अपनी शालीनता से मौके की नजाकत को समझा, लेकिन इस बारूद पर चलते हुए उन्हें कुछ ठोस कदम लेने की हिदायत है।
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