
अशोक गौतम
तब अपने नए-नए दायित्व का पूरी ईमानदारी से निर्वाह करने के लिए आनन फानन में उन्होंने गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के सदस्यों की अपने घर में मीटिंग बुला डाली और उनके आते ही सबको सजोश संबोधित करना शुरू किया, ‘हे हमारे चराचर गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के विवकेशील सदस्यो! जिसका देश के विकास में सबसे अधिक योगदान रहा है, मीडिया की खबरों से ही पता चला है कि उन्हें उनके अधिकारों से तो वंचित रखा ही जा रहा है पर अब…’ वे कुछ देर खांसने के लिए रुके। इस बीच उन्होंने तिरछी आंखों से यह भी देख लिया कि उनकी बात को कौन कौन गंभीरता से ले रहा है। वे खांसने को रुके तो उनकी रुकावट को भरने के लिए मौका पाकर गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के उपप्रधान ने कहा, ‘बंधु! यह कौन सी नई बात है? यह तो सदियों से होता आया है। आज तक हमें गंभीरता से लिया ही किसने? हमने खुद भी तो आज तक अपने को गंभीरता से कहां लिया?’ ‘तो तुम क्या चाहते हो कि हमारी बारी में भी ऐसा ही हो?
अगर गर्दभों के साथ हमारी बुद्धिजीवी कार्यकारिणी के वक्त भी ऐसा ही हुआ तो लानत है हम गधा समाज के बुद्धिजीवियों को। भाई साहब! ऐसा हुआ तो गर्दभों और आदमियों के बुद्धिजीवी प्रकोष्ठों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा।’ ‘तो?’ ‘तो क्या? हम गौ कैबिनेट की तरह अपने संरक्षण हेतु गर्दभ कैबिनेट की स्थापना सरकार से करवाकर ही रहेंगे। अब जुल्म बरदाश्त से बाहर हो रहा है।’ ‘पर उनकी हर कैबिनेट में तो हम चोरी छिपे पहले से ही मौजूद हैं।’ ‘देखो छोटे भाई! गाय और हमारी तुलना करके देखा जाए तो हम उसके बराबर हैं। हममें और गाय में क्या समानता नहीं? हमारे वंश की भी वही राशि है जो उसके वंश की है। उसके भी चार टांगें हैं तो हमारे भी चार टांगें हैं। उसके भी दो कान हैं तो हमारे भी दो कान हैं। उसके पास भी एक मुंह है तो हमारे भी एक ही मुंह है। उसके पास एक नाक है तो हमारे पास भी एक ही नाक है। उसके भी एक पूंछ है तो हमारे भी एक ही पूंछ है। उसके पास भी एक आत्मा है तो हमारे पास भी उसी ईश्वर का अंश आत्मा है। वह भी घास खाती है तो हम भी घास खाते हैं। वह भी कचरे के ढेर के पास सारा दिन खड़ी रहती है तो हम भी कचरे के ढेर के पास सारा दिन पड़े रहते हैं।
बस फर्क सिर्फ इतना है कि वह दूध देती है और हम लीद।’ ‘पर इस दलील पर तो कल को सांड, भैंसे भी सरकार के आगे दावा ठोक देंगे कि उनके हितार्थ, रक्षार्थ, संवर्धनार्थ सांड कैबिनेट, भैंसा कैबिनेट की स्थापना भी की जाए।’ ‘तो इसमें बुराई ही क्या है? जागरूकता से ही लोकतंत्र मजबूत होता है। दावा ठोंकना लोकतंत्र में गधे से गधे का भी मौलिक अधिकार है। किसका दावा चल निकलता है, वह इस बात पर निर्भर करता है कि किसके दावे ने किसको कितना ठोका।’ ‘तो?’ ‘तो क्या! हमारी पकड़ हर विभाग में मजबूत होने के बाद भी हमारे साथ ऐसा मजाक? हम सरकार से पूछते हैं कि क्या गौ ही धन है? गधे धन नहीं?’ कहते कहते गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के प्रधान ने अपने गिलास में बची आधी चाय एक ही घूंट में पी ली यह सोच कर कि जो वे चाय पीने को जरा और रुके तो उनके बोलने के टाइम पर दूसरा ही हाथ साफ न कर जाए कहीं। पर शुक्र खुदा का! चाय मुंह जलाने लायक न बची थी। वैसे उनका चाय से जो मुंह जल भी जाता तो क्या हो जाता? जिनको एक बार अपनी जुबान सबके ऊपर रखने की बीमारी हो जाती है, वे जले मुंह भी बाज नहीं आते।
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