

कहते हैं कि भारत में सिंधु घाटी की सभ्यता से ही खेती होती रही है। इतिहास में खेती ही एकमात्र ऐसा विकास है, जिससे सभ्यताओं का उदय हुआ है। खैर यहां हम बात करेंगे हिमाचल में खेती की। इस पहाड़ी प्रदेश के गठन से लेकर अब तक खेती ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। प्रदेश में किस तरह से बदले खेतीबाड़ी के तरीके। परंपरागत खेती से कितने जुड़े हैं किसान। कौन सी फसलें उगाने पर ज्यादा है जोर… 30 साल पहले और अब की फार्मिंग में कितना आगे बढ़ गया हिमाचल… पेश है यह दखल (भाग-1)
सूत्रधार : जीवन ऋषि, मोहर सिंह पुजारी, अजय रांगड़ा, मंगलेश कुमार, प्रतिमा चौहान
अमीर खेती…गरीब किसान
60 के दशक तक हिमाचल में पारंपरिक बीजों की भरमार थी। पहाड़ पर पैदा होने वाली प्रमुख दालें चने, उड़द, अरहर, मसर, रोंगी, रोड़ी, राजमाह, कुल्थ, अलसी, कलां, अरहर, मोठ, मसूर आदि से पहाड़ महक उठते थे। इसके अलावा गन्ना, हल्दी, बड़ी इलायची (एलदाना) की दुनिया दीवानी थी। प्रदेश में अदरक, लहसुन, टमाटर, साग, पहाड़ी आलू का अपना ही जलवा था। इसके अलावा धान में पारंपरिक चावल, गेहूं, मक्की मंढल का देश-विदेश में जलवा था। यह क्रम 80 के दशक तक तरक्की के पथ पर चलता रहा। यह वह दौर था, जब ज्यादातर किसान सिर्फ अपने परिवार के लिए खेती करते थे, न कि बाजार के लिए।
अस्सी के दशक में प्रदेश में विदेशी बीज ने धीरे-धीरे पांव पसारना शुरू किए। गेहूं, धान, मक्की और नकदी फसलों के नए-नए बीज प्रदेश आए, तो प्रोडक्शन भी दोगुनी से तिगुनी होते देर न लगी। धान में जहां अमरीकन और हाइब्रिड किस्मों पर किसानों का भरोसा बढ़ता गया, तो गेहूं में सर्टिफाइड की जगह ओपन मार्केट के महंगे बीजों का क्रेज है। इसी तरह चीनी सलाद, पपचोई और बीजल ने भी अब पहाड़ में अपने पैर तेजी से पसार लिए हैं। यही वह दौर था, जब किसान परिवार से बाहर जाकर बाजार के लिए भी खेती करने लगे। बाद में 90 के दशक के बाद मशीनीकरण तेजी से बढ़ा। खेतों में हल और बैलों की जगह ट्रैक्टर दिखने लगे। फसलों की थ्रेशिंग डीजल और पेट्रोल चालित मशीनों से होने लगी। यह दौर इतनी तेजी से चला कि आज प्रदेश के करीब 70 फीसदी परिवारों के पास खेती की मशीनें हैं। इनमें ट्रैक्टर के अलावा पावर टिल्लर, वीडर, ब्रश कटर, ग्रास कटर प्रमुख हैं। आज प्रदेश में बेमौसमी सब्जियां पॉलिहाउस में तैयार की जा रही हैं। प्रदेश में पॉलिहाउस पर 80 फीसदी से ज्यादा सबसिडी का प्रावधान है।
क्यों मिटे पहाड़ के पुराने बीज
बेशक हाइब्रिड बीजों से धान-गेहूं की प्रोडक्शन चार गुना तक बढ़ी है, लेकिन इससे पुराने बीज अब न के बराबर रह गए हैं। यही हाल सब्जियों के बीजों का है। हालांकि प्रदेश सरकार और उसके महकमे कई नई और पुरानी किस्में सहेजने का दावा करते हैं, लेकिन किसानों को ओपन मार्केट के हाइब्रिड बीजों पर भरोसा है।
चार बड़े कारण
- पहला कारण है जंगली जानवर। बंदर, लावारिस पशुओं और कुत्तों ने खेती को तहस-नहस कर दिया है। यही कारण हैं कि किसान अब हाइब्रिड बीज लगाकर प्रोडक्शन और लागत में तालमेल बिठाता है।
- दूसरा कारण है संयुक्त परिवारों का खत्म होना और छोटे परिवारों का बढ़ना। परिवार छोटे होने से सामुदायिक खेती की अवधारणा को धक्का लगा है।
- तीसरा बड़ा कारण पानी और लेबर की कमी है। लेबर न मिलने से लोगों का ध्यान पारंपरिक खेती से हटकर हाइब्रिड की ओर बढ़ा है।
- चौथा और सबसे बड़ा कारण हिमाचली सरकारों की इच्छाशक्ति में कमी को माना जा सकता है। प्रदेश में पुराने बीजों को सहेजने के लिए आज तक कोई बड़ी योजना बनी ही नहीं है। काश! जीरो बजट, जैविक और ऑर्गेनिक खेती पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हमारे नेता कुछ बचे खुचे पारंपरिक बीजों को सहेजने की दिशा में प्रयास करें।
बैलों वाला ज़माना गया
पुराने समय में किसान खेतीबाड़ी बैलों के साथ करते थे। हर किसान के घर में अच्छे नस्लों की बैल होते थे। किसान सुबह से लेकर देर रात तक खेतों में बिजाई करने जुट जाते थे, लेकिन बदलते परिवेश में अब काफी बदलाव हुआ है। आधुनिकता के दौर में खेतों का कार्य तकनीकी हो गया है। किसान चंद घंटों में ट्रैक्टर सहित अन्य मशीनों के माध्यम से फसलों की बिजाई कर कार्य समाप्त कर रहे हैं।
प्रदेश में 9 लाख किसान
हिमाचल प्रदेश में करीब नौ लाख किसान हैं। इनमें 86 फीसदी फार्मर्ज छोटे व मझौले हैं। खेती से 69 प्रतिशत कामकाजी आबादी को सीधा रोजगार मिलता है। कृषि से होने वाली आय प्रदेश के कुल घरेलू उत्पाद का 22.1 प्रतिशत है। राज्य में कृषि भूमि केवल 10.4 प्रतिशत है।
दालें उगाने में फिसड्डी, हिमाचल में बाहर से आती है सप्लाई
कृषि विशेषज्ञों की मानें तो हिमाचल में सिंचाई योग्य ज्यादा जमीन न होने की वजह से तिहलन व दलहन की फसलें नहीं होती। अधितकर खाद्य उत्पादों के लिए राज्य के लोगों को दूसरे राज्यों पर निर्भर होना पड़ता है। हिमाचल में केवल चावल, गेहूं, सब्जियां, आलू, अदरक, होता है। इन खाद्य उत्पादों को खरीदने के लिए हिमाचल के लोगों को बाहरी राज्यों पर निर्भर नहीं होना पड़ता। हिमाचल के लिए सभी दालें बाहरी राज्यों से ही खरीदी जाती हैं। मात्र कई जिलों में जो दालें होती भी हैं, वे भी केवल अपने लायक ही होती हैं। यही वजह है कि हिमाचल के लोग अभी भी दालें, चीनी, चावल, आटा, व तमाम खाद्य वस्तुओं के लिए बाहरी राज्यों पर ही निर्भर रहते हैं।
बिजाई-कटिंग-थ्रेशिंग अब आसान
दो-तीन दशक पहले बिजाई के लिए कई बार हल चलाना पड़ता था। बैलों से टाइम भी ज्यादा लगता था, लेकिन अब ट्रैक्टर या पावर टिल्लर से दिनों का काम घंटों में हो जाता है। पहले कटिंग हाथों से होती थी, अब इसके लिए हाइटेक कटर हैं। पहले थ्रेशिंग हाथों से होती थी, अब धान, गेहूं और मक्की के थ्रेशर आ गए हैं।
अब है टिश्यू कल्चर रूट स्टॉक का जमाना
पहले सेब या अन्य फसलों के बीजों से पनीरी तैयार की जाती थी, लेकिन अब यह ट्रेंड चेंज होता जा रहा है। मौजूदा समय में रूट स्टॉक और टिश्यू कल्चर का जमाना है। इससे अब सेब का पौधा महज तीन साल में फ्रूट दे देता है, जिसे पहले 15 साल लगते थे।
किस जिला में कितनी जमीन पर हो रही प्राकृतिक खेती
जिला किसान खेती(हेक्टेयर)
चंबा 6994 615.03
कांगड़ा 20568 634.30
हमीरपुर 10209 652.75
बिलासपुर 5501 326.45
मंडी 20059 893.69
कुल्लू 9178 256.87
लाहुल 437 36.8
स्पीति 437 36.8
शिमला 8605 601.39
सोलन 4868 327.39
सिरमौर 4600 414.25
किन्नौर 910 106.94
ऊना 4731 342.26
खादों में भी कई उतार-चढ़ाव
पिछले दो दशक में देसी और अंग्रेजी खादों ने खूब उतार-चढ़ाव देखे हैं। केंचुआ खाद ने लोकप्रियता हासिल की, तो रासायनिक खादों की उपलब्धता में समय-समय पर कमी की बातें भी सामने आई हैं। मौजूदा समय में प्रदेश सरकार ने जैविक, ऑर्गेनिक और प्राकृतिक खाद पर ज्यादा ध्यान दिया है।
सरसों के पीले फूल अब दिखते ही नहीं
वक्त के साथ-साथ खेती का तरीका भी बदल गया और फसलें भी। हमीरपुर में 30 वर्ष पहले जहां दलहन, तिलहन में चना, मसर, सरसों-तोरिया, मास, कूलथ, अरहर, अलसी काफी बड़े पैमाने पर उगाई जाती थी, ये सब अब देखने को नहीं मिलता। कोई भी किसान इन्हें उगाने में रुचि नहीं दिखा रहा है। जिला में कहीं भी अब सरसों के पीले खेत देखने को नहीं मिलते। हमीरपुर के किसान नकदी फसलों में सब्जियों का कारोबार ही कर रहे हैं, जिनसे उनकी मोटी कमाई हो रही है। जिला में दलहन व तिलहन की खेती पूरी तरह गायब हो गई है।
जिला में जहां पानी की सुविधा है, वहां किसान सब्जियों का कारोबार करने में लगे हुए हैं। किसानों की नकदी फसलों की तरफ ज्यादा रुचि बढ़ी है। जिला के अधिकतर क्षेत्र में लोग सब्जियों का कारोबार कर रहे हैं, जिससे खुद व दूसरों को भी रोजगार मुहैया करवा रहे हैं। सरकारी तंत्र भी गायब हुई खेती की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दे रहा। सिर्फ खेतीबाड़ी की नई-नई तकनीक पर काम करवाया जा रहा है। वर्तमान में हालात ऐसे हैं कि किसान खेतीबाड़ी छोड़ने को मजबूर हैं। किसानों की फसलों को जंगली जानवर तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। रही-सही कसर लावारिस पशु पूरी करने में लगे हुए हैं। किसानों को खेतों में मेहनत करने के बाद भी कुछ हाथ नहीं लग रहा। अधिकतर किसान साल दर साल खेतीबाड़ी छोड़ रहे हैं।
सरकारी योजनाएं भी किसानों के सिरे नहीं चढ़ पा रही। सोलर फेंसिंग और बाड़ीबंदी के नियम भी किसानों को उलझा रहे हैं। यही कारण है कि अधिकतर किसान अभी तक अपनी फसलें सुरक्षित नहीं कर पाए हैं। किसान अब मक्की और गेहूं की फसल पर ही निर्भर हैं। भोरंज के कुछ हिस्से में ही अब धान की खेती हो रही है। जहां पानी की सुविधा है, वहां किसान नकदी फसलें जरूर उगाने लगे हैं। जिला का अधिकतर क्षेत्र सिंचाई सुविधा से वंचित है। कई बार बारिश न होने से भी किसानों को काफी नुकसान होता है। अगर सरकारी तंत्र भी वर्षों पुरानी फसलें उगाने के लिए किसानों को प्रेरित करे, तो किसान दोबारा नई तकनीक के जरिए अच्छी पैदावार कर सकते हैं।
हमीरपुर में पारंपरिक खेती से जुड़े किसान
हमीरपुर जिला की 385 हेक्टेयर भूमि पर पारंपरिक खेती हो रही है। जिला के करीब छह हजार किसान पारंपरिक खेती से जुडे़ हैं। किसानों को तकनीक चेंज कर मिक्स खेतीबाड़ी करना सिखाया जा रहा है, ताकि किसान पारंपरिक खेती के साथ-साथ नकदी फसलों का कारोबार कर मोटी कमाई कर सकें। नई तकनीक के चलते किसानों में भी जागरूकता आई है। किसानों के लिए खेतीबाड़ी करना अब पहले से आसान हो गया है। पहले जहां बैलों के जरिए खेतीबाड़ी होती थी, अब उसकी जगह टै्रक्टर व नई मशीनों ने ले ली है। इस दौर में दलहन-तिलहन और कपास की खेती गायब हो गई है। किसान सब्जियों का कारोबार कर मोटी कमाई कर रहे हैं। इसके अलावा लेट वैरायटी की सब्जियों का कारोबार भी पॉलीहाउस में खूब फल-फूल रहा है।
अब किसानों के लिए डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर पॉलिसी शुरू कर रही सरकार
ेहिमाचल प्रदेश के करीब नौ लाख किसानों के लिए राहत है। प्रदेश सरकार किसानों के लिए डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर पॉलिसी लागू करने जा रही है। डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर का उद्देश्य अनुदान राशि को लाभार्थियों के बैंक खातों में स्थानांतरित करना और सूचना के सरल और तीव्र प्रवाह के लिए मौजूदा प्रक्रिया में सुधार कर लाभार्थियों को सीधा लाभ सुनिश्चित कर डी-डुप्लीकेशन और धोखाधड़ी से बचाना है। इससे न केवल किसानों को उनके उत्पादों के बेहतर मूल्य उपलब्ध होंगे, बल्कि अधिक उपज के बीजों व खरपतवार और कीटनाशक दवाइयों पर डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के माध्यम से अनुदान प्राप्त करने में सुविधा होगी।
अब नकदी फसलों से कमाई
मंडी जिला में बदलते परिवेश के साथ-साथ खेतीबाड़ी का तौर-तरीका भी बदला है। मंडी जिला के किसान 30 वर्ष पूर्व खेतीबाड़ी के अच्छे साधन न होने के कारण अपने परिवार के गुजारे के लिए ही कमा पाते थे। पुराने समय में कम जागरूकता के चलते फसलों की उपज काफी कम होती थी, लेकिन अब समय के साथ-साथ किसान नई-नई तकनीक अपनाकर उत्पादकता बढ़ा रहे हैं। जैसे-जैसे खेतीबाड़ी करने के तौर-तरीके बदलने लगे हैं, तो किसानों का कमाई की तरफ रुझान बढ़ा है।
अब आलम यह है कि किसानों ने आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए नकदी फसलों की बिजाई का कार्य बढ़ा दिया है। 30 वर्ष पहले मंडी जिला में करीब 60 हजार हेक्टेयर भूमि पर खेतीबाड़ी होती थी। किसान खेतीबाड़ी में गेहूं, धान की देशी किस्म कोदरा, ज्वार सहित कुछ सब्जियां ही उगाते थे। इस उत्पादन से भी पूरे परिवार का गुजारा मुश्किल से होता था, लेकिन वर्ष 1980-90 के दशक में किसानों में जागरूकता आई। कृषि विभाग ने विभिन्न योजनाओं के तहत प्रदेश में प्रोजेक्ट्स की स्थापना की। इसके बाद किसानों ने खेतीबाड़ी में उपज बढ़ाने के लिए खाद का प्रयोग करना शुरू कर दिया। वहीं, कृषि विभाग ने किसानों को बीज की अच्छी किस्म मुहैया करवाना शुरू कर दी।
अच्छा उत्पादन होने से मंडी जिला में खेतीबाड़ी करने का क्षेत्रफल बढ़कर करीब 75-77 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गया। किसानों ने प्रदेश सरकार व कृषि विभाग की योजना को सही ढंग से समझकर खेतीबाड़ी को नए तरीके से करना शुरू किया। इससे मंडी जिला में उत्पादन में 25-40 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। वहीं, किसानों ने समस्त फसलों के लिए नए बीज का प्रयोग करना शुरू किया। इससे किसानों को काफी फायदा पहुंचा। इसके बाद किसानों को सिंचाई की सुविधा मिलने लगी। इससे फसलों को काफी फायदा पहुंचना शुरू हो गया। हिमाचल किसान यूनियन के महासचिव सीता राम वर्मा का कहना है कि वर्तमान में खेतीबाड़ी में काफी सुधार हुआ है। अब किसानों को हर बीज हाइब्रिड मिलता है। कृषि विभाग की तमाम सुविधा किसानों को घर-द्वार पर मिल रही है, जिसका किसानों को पूरा लाभ मिल रहा है।
पूरा नॉर्थ इंडिया खाता है बल्ह का टमाटर
मंडी जिला में सब्जियों में सबसे बड़ा उदाहरण बल्ह घाटी का टमाटर का उत्पादन है। इस क्षेत्र में टमाटर का उत्पादन मार्च से जून माह में होता है। इस समय कहीं भी टमाटर का उत्पादन नहीं होता है। इसके चलते हर वर्ष बल्ह के टमाटर की खेप पूरे नॉर्थ इंडिया में जाती है, लेकिन ऐसी स्थिति 30 वर्ष पहले नहीं थी।
और बढ़ता गया खेतीबाड़ी का ग्राफ
वर्तमान में मंडी जिला में खेतीबाड़ी करने का ग्राफ काफी बढ़ गया है। इस समय मंडी जिला में करीब 80 हजार हेक्टेयर भूमि तक फसलों का उत्पादन किया जाता है। इसमें मंडी जिला 19 हजार हेक्टेयर में धान की उत्पादन, 63 हजार हेक्टेयर में गेहूं, 47 हजार हेक्टेयर में मक्की की फसल का उत्पादन होता है, जबकि 30 वर्ष पहले मंडी जिला में करीब 50-60 हजार हेक्टेयर भूमि पर फसलों की बिजाई होती थी। वर्तमान में किसानों ने रासायनिक खादों पर जोर दिया है। ज्यादा फसल होने लगी है, लेकिन खाद स्वास्थ्य के लिए घातक है।
बाहरी राज्यों को भी जा रही सब्जी
वर्ष 1980 तक 100-200 तक हेक्टेयर सब्जी होती थी, जो केवल अपने परिवार तक ही सीमित होती थी। वर्तमान समय में मंडी जिला में सब्जियों का उत्पादन हर सीजन आठ-नौ हजार हेक्टेयर भूमि पर होता है। इससे मंडी जिला में सब्जियों का उत्पादन बढ़ने लगा है। अब मंडी जिला में सब्जियों का उत्पादन इतना बढ़ गया है कि किसान बाहरी राज्यों को भी सब्जियों की सप्लाई भेज रहा है। इससे सहज ही पता लग रहा है कि किसान अपने परिवार के साथ-साथ दूसरे राज्यों के परिवार का पेट भी पाल रहा है।
कोरोना काल में और बढ़ा खेतीबाड़ी का दायरा
कोरोना काल में मंडी जिला में खेतीबाड़ी का क्षेत्रफल काफी बढ़ गया है। इस संकटकाल में अधिकांश बाहरी राज्यों में रह रहे लोग घर लौटकर खेतीबाड़ी करने में जुट गए हैं। इससे कृषि विभाग के पास बीज की डिमांड भी काफी बढ़ गई है।
योजनाओं के लिए जागरूक कर रहा कृषि विभाग
कृषि विभाग मंडी के उपनिदेशक डा. कुलदीप वर्मा कहते हैं कि कृषि के क्षेत्र में काफी बदलाव आया है। विभाग कृषि से संबंधित समस्त योजनाओं के बारे लोगों को जागरूक कर रहा है। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है।
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